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प्रेम का धागा।

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वो रात जो जाग कर गुजार दी जाती थी भयवश किसी अप्रत्याशित के उस रात के बीच जब जाग गए थे तुम एकबार, और तुमने मुझे भी जागता पाया मेरे आँखों में पसरा डर देखा और जोर से मुझे गले भी लगाया। पर कइयों बार हम खुद से दूर हो जाते हैं। तुम समझाते  टोटके करते बचाने को मुझे  बुरे सपनों से और मैं ढीठ सी हर बार डर ही जाती। फिर अचानक  तुम ले आये  एक धागा मेरा इनको ना मानना और तुम्हारी इन सब पर पूरी श्रद्धा मेरा मना करना  पर तुम मुझे चुप करा बस बांधते रहे कलाई पर उसे मेरी। मैं तुम्हे देख रही थी उस वक़्त पूरे आश्चर्य से कैसे प्रेम में पड़ा लड़का है यह धागे से भला कभी कोई भय जाएगा पर तुम्हारे खातिर मैंने बांधे रखा वो अजमेर का धागा आख़री गाँठ के साथ तुम्हारा उस धागे को चूमना और मेरा तुम्हारे और इश्क़ में पड़ना। आज अचानक एक चींटी घुस गयी है इसमे जैसे पूँछ रही हो ये कैसे अब तक बंधा है मैंने हलके से अलग किया उस चीटीं को  और समझाया ये मामूली नहीं प्यार का धागा है आधी रात को प्रेयस के हांथो बंधा महफूज़ियत का धागा है। ऐसा बोल कर मैं  सोचती हूँ वाक़ई कितनी ताक़त होती है