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लाइफ इन एपीडेमिक

2017 के बाद अब तक ना जाने कितना कुछ बदल चुका है. एक महामारी से 2 साल से पूरी दुनिया जूझ रही है. आने वाले कुछ और साल भी इस महामारी की भेट चढ़ेंगे. लगभग 5 साल के राइटर ब्लाक से उबरने की कोशिश में ये सब लिख रही हूँ. ये भी हो सकता था की इस महामारी का शिकार हो अब तक हुई मौतों के नाम में मेरा नाम भी रहता लेकिन जैसा की मैं कई बार पहले भी लिख चुकी हूँ की कुछ बातों पर आपकी इच्छा बहुत बलवती नहीं हो पाती. मेरा ना मर पाना शायद वैसी ही कोई इच्छा है. खैर इन सब बातों का कोई ख़ास महत्त्व अब नहीं है. मैं जीना सीख गयी हूँ.  वैसे ये भी विचित्र बात है की जब लोग मौत के डर से घर पर सहमे थे तब मेरे जीवन जीने कि इच्छा का अंदाजा मुझे हुआ. 4 साल के अन्तर को आज देखें तो इन बीत सालों में मैंने एक डॉक्टर की डिग्री हासिल कर ली. कुछ अच्छे सर्टिफिकेट कोर्स कर डाले. कोरोना नाम की महामारी में फ्रंटियर भी बन गयी. अखबारों में बाकायदा फोटो के साथ खबर तक आ गई.  और सबसे बड़ी बात इसी महामारी में मैंने गोवा भी देख लिया.   2010 के बाद 2 महीनों से घर का आनंद ले लिया वो भी नौकरी के साथ. कुछ 4 साल पहले जब मैं खुद से खुद के अस्तित्व

डायरी ऑफ़ अ मेडिको हु वांट्स टू गेट लॉस्ट..

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डायरी ऑफ़ अ मेडिको हु वांट्स टू गेट लॉस्ट.. मैं क्या हूँ मुझे नहीं पता!! पर इंसानों की भाषा में मुझे "इंसान" ही कहते हैं.. इंसान क्यूँ कहते हैं ये मुझे नहीं पता, या फिर जैसी हमारी भाषा है वैसे दूसरे प्राणियों की भाषा में हमें क्या कहते होंगे, ये भी मैं नहीं जानती हूँ. वैसे बचपन से इस बात को ले कर क्यूरियस थी की हम जो भाषा बोलते हैं उसमे 'क' के बाद 'ख' की क्यूँ आता है. 'ए' के बाद 'बी' ही क्यूँ आता है. खैर मैं अपनी बात कर रही थी.  मैं एक इंसान हूँ.. जिसे इंसानी भाषा में इंसान कहते हैं..  और जैसा एक इंसान को लिए जरुरी है खाना.  उसी खाने के लिए इंसान को कई जतन करने पड़ते हैं.  पढना पड़ता है, एक्साम्स देने होते हैं, पास होना होता है, टॉप करना होता है. नौकरी ढूंढनी पड़ती है, नौकरी करनी पड़ती है. तब जा कर सैलरी मिलती है, और उससे खाना मिल पाता है.  काफी पेचीदा है ना ये सब.  पर क्या करें ये सब करना पड़ता है. करना पड़ता है क्यूंकि हमसे पहले हमारे माता पिता ने भी यहीं किया है. और हमें भी यहीं सिखाया गया है की गर कमाओगे नहीं तो खाओगे क्या. बस इसी