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प्रेम का धागा।

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वो रात जो जाग कर गुजार दी जाती थी भयवश किसी अप्रत्याशित के उस रात के बीच जब जाग गए थे तुम एकबार, और तुमने मुझे भी जागता पाया मेरे आँखों में पसरा डर देखा और जोर से मुझे गले भी लगाया। पर कइयों बार हम खुद से दूर हो जाते हैं। तुम समझाते  टोटके करते बचाने को मुझे  बुरे सपनों से और मैं ढीठ सी हर बार डर ही जाती। फिर अचानक  तुम ले आये  एक धागा मेरा इनको ना मानना और तुम्हारी इन सब पर पूरी श्रद्धा मेरा मना करना  पर तुम मुझे चुप करा बस बांधते रहे कलाई पर उसे मेरी। मैं तुम्हे देख रही थी उस वक़्त पूरे आश्चर्य से कैसे प्रेम में पड़ा लड़का है यह धागे से भला कभी कोई भय जाएगा पर तुम्हारे खातिर मैंने बांधे रखा वो अजमेर का धागा आख़री गाँठ के साथ तुम्हारा उस धागे को चूमना और मेरा तुम्हारे और इश्क़ में पड़ना। आज अचानक एक चींटी घुस गयी है इसमे जैसे पूँछ रही हो ये कैसे अब तक बंधा है मैंने हलके से अलग किया उस चीटीं को  और समझाया ये मामूली नहीं प्यार का धागा है आधी रात को प्रेयस के हांथो बंधा महफूज़ियत का धागा है। ऐसा बोल कर मैं  सोचती हूँ वाक़ई कितनी ताक़त होती है

प्रेम और हम..

हम अक्सर उम्मीद करते हैं प्रेम की .... एक प्रेम की जो कि हमें पूर्ण कर सके बजाय इसके कि हम स्वयं प्रेम हों और पूर्ण भी । हम बिना चाहे खुद को चाहते हैं कि किसी और के द्वारा बेहद चाहे जाए ... जबकि यह कितना अजीब है, प्रेम सर्वव्यापी है...हर एक में विद्यमान... प्रत्येक रूप में.... पर हम इसके बंधन वाले रुप में ही रहना पसंद कर पाते हैं । मनुष्य ना जाने क्यों पहले बंधनों के पीछे भागता है...  वह चाहता है कि वह उस पर कोई प्यार से बंदिशे लगाए ... और फिर जब कुछ समय बीत जाया करता है वह वापस अपनी दूसरी धारा में चला जाता है ... जहां वह वापस स्वतंत्रता चाहता है ...एक नए सिरे से चाहा जाना चाहता है।  इसका कारण भी मनुष्य के मूल में ही है हम  बदलाव ना स्वीकारने वाली जमात हैं .... हम चाहते हैं कि 3 साल पहले आपमे एक इंसान के लिए जितना प्रेम था या  जैसा प्रेम था ठीक वैसा आने वाले 30 सालों में भी रहे पर यह तो असंभव है न फर्ज कीजिए यदि बारिश जो आपको बेहद पसंद है लगातार वैसी ही 30 वर्षों तक रहे या बर्फ हमेशा गिरती रहे तो क्या हम इसे स्वीकार पाएंगे। क्यों हम बदलाव विरोधी हैं ???क्यों हम वह नहीं चाह

यूँ ही.....

प्यारी लड़कियों       सुनो  यह जरूरी है बेहद कि तुम जानो  तुम जानो कि तुम अनमोल हो बेहद कि अनमोल होना खासियत है तुम्हारी तुम्हें यह जानना चाहिए कि  तुम्हारी इस अनमोलियत और स्त्री होने का पूरा समाज उठाता है फायदा प्रकृति द्वारा दी गई करुणा का स्नेह और वात्सल्य का समाज करता है व्याभिचार बार बार  क्यों ?? क्योंकि तुम अनमोल हो  तुम अनमोल हो यह जानकर ही समाज लगाता है कई बार बोलियां तुम्हारी कई बार बनकर रक्षक तुम्हारा  कई बार प्रेम का चोला ओढ़े  कई बार मोह कर मन तुम्हारा  यह बस खत्म करना चाहते हैं  तुम्हारा आत्मविश्वास  कि तुम अनमोल हो तुम जैसे जैसे जाओगी भीतर इस समाज के  पाओगी बस दोगलापन  पाओगी बस प्रतिस्पर्धा  प्रतिस्पर्धा उन बेतुकी चीजों की  जो की तुम्हे कम आंकती हैं वे चीजें  जो तुम्हें सिखाएंगी  वह झीना आत्मविश्वास  जिसकी कतई जरुरत नही तुम्हें सुनो... इसी बीच कोई शायद प्रेम लाएगा तुम्हारे पास तुम बेहद खुश होओगी झूमोगी चहकोगी तुम जश्न जिंदगी का मनाओगी कि प्रेम पा लिया है तुमने पर जानाँ....  यहाँ सम्हलना जरा  याद रखना कि  प्रेम पहले स्व से करना

ये ज़िन्दगी...

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अक्सर कभी कभी जब रात के सन्नाटे में बैठ मै खुद में खो सी जाती हूँ तब यही सवाल आता है जहन में... कहाँ हूँ मैं? कौन हूँ मैं?  क्या कर रही हूँ? परेशान सी हो जाती हूँ ,अक्सर ऐसा हो जाने के बाद.. ऐसे सवाल जिनके जवाब खोजने में कई जिंदगियाँ निकल जाएँगी  उनके पीछे भागना कोई  समझदारी की बात नहीं होगी। एक चीज़ सीखी हैं मैंने 20 बीते  वर्षों में कि अगर  कुछ ढूँढना है तो खुद को ही.'इस दुनिया में स्वयं के अतिरिक्त कुछ और नहीं पाया जा सकता'... पर फिर भी कहाँ हूँ मैं? क्या यहीं होना चाहिए था मुझे?   नहीं जानती इन सवालों के जवाब पर फिर भी एक  संतोष है...मैं चाहती हूँ समझना खुद को।