प्रेम और हम..

हम अक्सर उम्मीद करते हैं प्रेम की ....
एक प्रेम की जो कि हमें पूर्ण कर सके बजाय इसके कि हम स्वयं प्रेम हों और पूर्ण भी ।
हम बिना चाहे खुद को चाहते हैं कि किसी और के द्वारा बेहद चाहे जाए ...
जबकि यह कितना अजीब है, प्रेम सर्वव्यापी है...हर एक में विद्यमान... प्रत्येक रूप में.... पर हम इसके बंधन वाले रुप में ही रहना पसंद कर पाते हैं ।
मनुष्य ना जाने क्यों पहले बंधनों के पीछे भागता है...
 वह चाहता है कि वह उस पर कोई प्यार से बंदिशे लगाए ...
और फिर जब कुछ समय बीत जाया करता है वह वापस अपनी दूसरी धारा में चला जाता है ...
जहां वह वापस स्वतंत्रता चाहता है ...एक नए सिरे से चाहा जाना चाहता है।
 इसका कारण भी मनुष्य के मूल में ही है
हम  बदलाव ना स्वीकारने वाली जमात हैं .... हम चाहते हैं कि 3 साल पहले आपमे एक इंसान के लिए जितना प्रेम था या  जैसा प्रेम था ठीक वैसा आने वाले 30 सालों में भी रहे पर यह तो असंभव है न
फर्ज कीजिए यदि बारिश जो आपको बेहद पसंद है लगातार वैसी ही 30 वर्षों तक रहे या बर्फ हमेशा गिरती रहे तो क्या हम इसे स्वीकार पाएंगे।
क्यों हम बदलाव विरोधी हैं ???क्यों हम वह नहीं चाह पाते जो परिस्थितियों के अनुसार जैसी घटित हो रहा है ......
शायद यही जीवन है

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